महेश कुशवंश

11 जुलाई 2014

कलाधारी


हे
कलाधारी
चलो मान लेते है तुम्हें
भगवान.....
तर्क की कसौटी पर
नही तौलते तुम्हें
न ही तुम्हारे ब्रम्ह वाक्य पर
करते हैं कोई डिबेट
मान लेते हैं "गीता" से
अकर्मण्य भी हो जाता हैं 
कर्तव्य पथ पर अग्रसर
मगर मुझे बताओ
कितने अर्जुन है
जो उठा लेते हैं गान्डीव
चढा लेते हैं प्रत्यन्चा
अपनों ही पर
अपने ही प्रिय पितामह पर
मैं अर्जुन नहीं हूं तो भी
बुन लेता हूं
शब्दों के तीर
कुछ ऐसे जो 
भले ही बीध दें मुझे
मगर नहीं सधता मुझसे कोई निशाना
नही मिलता मुझे एक दुस्शासन
हज़ारों दुर्योधन से किसे चुनूं
और महाभारत समाप्त करूं
तुम्हारा विराट स्वरूप
मुझ में डर भर देता है
और मैं स्वयम को भी उसमें
समाता हुआ देखता हूं
अपने गड्ड-मड्ड होते शब्दों में
नहीं ढूढ पाता कोई लय
कोई तरंग
बस अतुकान्त सा मैं
तुम्हारे विराटरूप में तलासने लगता हूं
अपना कल
और निकल पड्ता हूं खोजनें
इस प्रथ्वी पर
कोई नया भूखन्ड
जहां तुम्हें स्थापित करूं


-कुशवंश

(प्रस्तुत कविता 20.10.2012 मे आदरणीय ऐवम लब्ध्प्रषिद्ध कवियत्री / ब्लॉगर रश्मि प्रभा जी द्वारा प्रेषित चित्रों की श्रंखला पर कविता लिखने के अनुरोध पर प्रेषित की गयी थी . आप भी रूबरू हों . शीघ्र अन्य कवितायें भी प्रस्तुत करूंगा -कुशवंश )

4 टिप्‍पणियां:

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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