महेश कुशवंश

20 अप्रैल 2016

एक अदद चेहरा


कभी सोचता हूँ
तो याद आता है मुझे
अपना अक्श,
गड्ड मड्ड,
आकार रहित,
बिना आँख कान नाक ,
एकदम सपाट चेहरा

शायद अनगढ़,
संवेदना व्यक्त करती आंखे,
शायद बनी ही नहीं
माथे पर आडी तिरछी लकीरें
जो बस आंतरिक सुनामी को
आयाम देतीं,
कोई देखे तो  दूर से ही समझ ले
कटीली झड़ियों
और अनेकों झंझावातों से
युद्ध करता सा
अंतर्द्वंदों मे फसा
आम आदमी
भीड़ मे , भागता , सूखे  और पपड़ाए होंठों  पर ,
रेत मे बिखरता
मिच मिची आँखों  का
अनाकार चेहरा
ही नज़र आता  है
सड़कों पर भरी पड़ी भीड़
यहाँ से वहाँ , फूलती साँसों से भागते
चेहरा छिपाये लोग
धूप से या अपने आप से
पता नहीं
शायद बिना चेहरे रहना
सुखद लगता है
या शायद चेहरे का कोई औचत्य ही नहीं रहा
या फिर व्यवस्थाओं की भेट हो गया
निर्मल चेहरा
हमारा , आपका
सबका
कुछ हो या ना हो
इतना तो करो ........कि
नज़र आए  सभी को
ये चेहरा, एक अदद चेहरा

-कुशवंश

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