महेश कुशवंश

16 अप्रैल 2016

मैं भूंखा हू



मैं भूंखा हू 
अए  रोटी तुम कहाँ हो  ?
कब से नहीं देखा तुम्हें साबूत 
बस टुकड़ों मे ही दिखाई देती हो
बहन भाइयों मेँ बटी हुयी 
कभी धूल मे सनी 
कभी पानी मे गीली गीली

माँ भी कैसी है  
चूल्हा तो जलाती है
मगर रोटी नहीं बनाती 
बस इधर उधर 
कूडे  से बीन लाती है
हाँ 
शहनाई और बैंड-बाजा  दिनों मे 
कूडे के ड्रम
हो जाते है पाँच सितारा होटल 
और कई कई दिन 
हम महाराजाओं से जीते है 
ड्रमों के आस पास 
ये ..... इन्सानों  
तुम्हें अगर हमें कुछ देने मे संकोच होता है तो 
यू ही खाना फेंकते रहो 
कूडे के ड्रमों मे 
हमें मिल जाएगा 
और हमारा पेट भी भर जाएगा 
कुछ सुधारवादी 
खाना फेंकना बुरा मानते है 
पता नहीं क्यों 
हमें भूखों मारना चाहते है 
उन्हें शायद नहीं मालूम 
हमें कुछ देने से तो रहे लोग 
कम से कम जूठा ही छोड़ने दे
हम कूडे से ही बीन लेंगे 
और भूंख से निजात पा लेंगे 
शायद

-कुशवंश



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